काफी अरसे हुए शब्दों को पिरोये हुए,
या यूँ कहूँ की अरसे बीते यादों में तसल्ली बक्श खोये हुए।
काफी समय बीता इस जीवन की आपाधापी में,
कभी वैवाहिक जीवन ने जकड़ा, तो कहीं मजबूरियों ने पकड़ा,
खैर, आज गले में फिर वही तरावट लौटी है।
दिल से निकले शब्दों में घमासान तो फिर तय है।
ज़रूर इन शब्दों से मेरा कुछ पुराना नाता है,
और फिर सुबह का भूला अगर शाम घर लौटे तो भूला नहीं कहलाता है।
कहीं न कहीं कुछ खिचड़ी ज़रूर पक रही है,
थोड़ी जिझक तो साफ़ दिख रही है।
जहाँ पहले बे-तकल्लुफी का आलम था,
आज "रूकावट के लिए खेद है" का बोर्ड कहीं कहीं दिख जाता है।
शायद बेतुकी ज़िन्दगी में थोड़ी तुक ढूँढने की कोशिश कर रहा हूँ,
हस्स्यास्पद जीवन को कारुण्य समझ रहा हूँ।
क्या गलत, क्या सही
छुपा है जवाब मुझमें ही कहीं।
समय के पिटारे से जब धूल हटेगी
शायद तभी कुछ बात आगे बढ़ेगी.
सोचा तो यही है की चाय की किसी चुस्की पे,
फिर मिलूंगा उन शब्दों से,
नए ख्यालों की संगत में,
बदलाव तो ज़रूर आया होगा,
पर उम्मीद है की एक बार फिर,
जीवन में बे-तकुल्लफ़ि का दौर आएगा,
जब बेख़ौफ़ शब्दों का इंद्रजाल बुना जाएगा।
या यूँ कहूँ की अरसे बीते यादों में तसल्ली बक्श खोये हुए।
काफी समय बीता इस जीवन की आपाधापी में,
कभी वैवाहिक जीवन ने जकड़ा, तो कहीं मजबूरियों ने पकड़ा,
खैर, आज गले में फिर वही तरावट लौटी है।
दिल से निकले शब्दों में घमासान तो फिर तय है।
ज़रूर इन शब्दों से मेरा कुछ पुराना नाता है,
और फिर सुबह का भूला अगर शाम घर लौटे तो भूला नहीं कहलाता है।
कहीं न कहीं कुछ खिचड़ी ज़रूर पक रही है,
थोड़ी जिझक तो साफ़ दिख रही है।
जहाँ पहले बे-तकल्लुफी का आलम था,
आज "रूकावट के लिए खेद है" का बोर्ड कहीं कहीं दिख जाता है।
शायद बेतुकी ज़िन्दगी में थोड़ी तुक ढूँढने की कोशिश कर रहा हूँ,
हस्स्यास्पद जीवन को कारुण्य समझ रहा हूँ।
क्या गलत, क्या सही
छुपा है जवाब मुझमें ही कहीं।
समय के पिटारे से जब धूल हटेगी
शायद तभी कुछ बात आगे बढ़ेगी.
सोचा तो यही है की चाय की किसी चुस्की पे,
फिर मिलूंगा उन शब्दों से,
नए ख्यालों की संगत में,
बदलाव तो ज़रूर आया होगा,
पर उम्मीद है की एक बार फिर,
जीवन में बे-तकुल्लफ़ि का दौर आएगा,
जब बेख़ौफ़ शब्दों का इंद्रजाल बुना जाएगा।