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Wednesday, August 08, 2012

नथिंग गुड अबाउट (गुड)गाव

आज, मैं अपने होश-ओ-हवाज़ और बिना किसी के दबाव में आये, आत्म समर्पण करना चाहता हूँ और वह भी इस क्रूर गुडगाँव शहर के आगे. इस बात से मैं नाखुश हूँ पर मैं और कर भी क्या सकता हूँ. जीवन में कई बातें हमें न चाहते हुए भी अपनानी पड़ती हैं, गुडगाँव शहर में काम करना भी कुछ वैसा ही है. पर बात यहीं ख़त्म नहीं होती, सवाल और भी कई हैं जिनका उठाया जाना आवश्यक है.
 
क्या हम अपनी आने वाली पीढ़ियों को गुडगाँव या नॉएडा जैसे शहर विरासत में छोड़ के जाना चाहते हैं? जहाँ कंकर पत्थर और कांच की बड़ी बड़ी इमारतें तो हैं पर उनमें बसने वाले लोगों के दिल उन्ही इमारतों की तरह कठोर हो चुके हैं. यहाँ आने वाला हर इंसान रोज़ सुबह उठने से डरने लगा है, इन शहरों का खौफ इस कदर हमारे दिलों पे हावी है की हम खुल के जीना ही भूल गए हैं. हसी ख़ुशी के पल तो अब पैसे देकर खरीदने पड़ते हैं. वह दिन दूर नहीं जब ज़िन्दगी की हर ख़ुशी पर भी टोल लग जाएगा
 
मैं आप सब की तरह अपने परिवार को ढेर सारी खुशियाँ देना चाहता हूँ, जिसके लिए रोज़ दस से बारह घंटे मैं जम के काम करता हूँ और इन्क्रीमेंट या तरक्की मिलने पर दोस्तों में ख़ुशी को बाटने की पूरी कोशिश करता हूँ. पर इस बीच में जीवन के ४ घंटे कोई चुरा के ले जाता है. यह वह चार घंटे हैं जिनपर सिर्फ मेरे परिवार का हक़ था. आज स्थिति यह है की मुझे परिवार के लिए समय निकलने के बारे में सोचना पड़ता है.
 
वे कहते हैं की कुछ लोगों को गिलास आधा खाली ही दिखता है, पर मैं सवाल आधे भरे हुए गिलास पर उठा रहा हूँ. कब तक हम इस बात को सोचकर खुश होते रहे की आधा गिलास भरा है चाहे उसमें ज़हर ही क्यूँ न हो. शायद इस शहर में रहने वालों को सिकोड़ के रहने आदत हो गयी है. सड़क नहीं, पानी नहीं, बिजली नहीं, हवा नहीं, अब तो जंगल के जानवरों से जलन हो रही है. कम से कम ताज़ी हवा तो ले रहे हैं. खैर हमारा शहर भी जंगल से कुछ कम नहीं. फिर चाहे वह जंगल कंक्रीट का ही क्यूँ न हो. कमबख्तों ने बढती आबादी के नाम पे सारे पेड़ काट डाले. कभी गुडगाँव को उड़ते विमान की खिड़की से देखना, शहर और शहर बनाने वाले दोनों से नफरत हो जाएगी. शायद बियाबान रेगिस्तान इस शहर से जादा खूबसूरत होगा.
  • हम यह सब क्यूँ बर्दाश्त कर रहे हैं?
  • क्या कोई उपाय है?
  • क्या इसे अपना दुर्भाग्य मान के यूँ ही चलने दें? क्या आप थक नहीं गए?
  • क्या आपको इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता की कोई आपके जीवन से अनमोल पल चुरा के ले जा रहा है?
  • इसे किसकी ज़िम्मेदारी समझें? अगर सरकार की तो ऐसी सरकार को लाने की ज़िम्मेदारी किसकी है?
 
मेरा मानना यह है की कोई भी शहर इमारतों या सड़कों से कहीं जादा वहां के लोगों से बनता है. एक शहर को बनाना और उसकी देखभाल करना हमारी ही जिम्मेदरी है. अगर सरकार कुछ ठीक नहीं कर सकती तो उसे हटा कर हमें खुद ही ठीक करना पड़ेगा. आखिर यह हमारा घर है. अगर घर की साफ़ सफाई करने वाला नौकर अगर काम न करे या गलत करे तो आप क्या करते हैं? उसे बदल देते हैं, पर इससे घर की सफाई तो नहीं रूकती.
लगता है आपके और मेरे चैन के साथ गुडगाव से गुड जैसी मिठास भी चुरा ली गयी है.
जागो दोस्तों!