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Friday, November 28, 2008

एकमात्र सच

कैसे भूल जाऊं ?
और क्यूँ ?
मानो की जीवन का कोई मोल ही नहीं रहा।
दम घुट रहा है यहाँ पे।
अरे, रोको इन्हे ! रोको!
कहाँ जा रहे हैं यह लोग?
मुझे बहुत डर लग रहा है।
फ़िर से कई नन्हे चेहरों की हँसी गुम जाएगी।
ठहरो !
लगता है कहीं किसी के रोने की आवाज़ आ रही है।
सियासत , लोकतंत्र, धर्मं
यह शब्द अब दकियानूसी और बेमानी लगते हैं।
आतंक के साए में धर्मं या लोकतंत्र नहीं पनप सकता।
कुछ सांत्वना के शब्द इस दर्द का मरहाम नहीं हो सकते।
व्यक्ति, समुदाय, समाज और फ़िर राष्ट्र
यह सब एक दूसरे से जुड़े हुए हैं।

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