मेरे शब्दों की खुशबु में छुपी है दास्ताँ मेरी।
या फ़िर जीवन की खुशबु से उभरे हैं यह शब्द सारे?
यह शब्द और खुशबु हैं पास मेरे सदियों से,
अंधेरे और उजाले की तरह,
ख्वाबों और ख्यालों की तरह।
कहते हैं खुशबुएँ किसी एक वादी में नहीं रहती। शायद सच ही कहते हैं। ज़िन्दगी को खुशनुमा बनाना, रूह को शीतल करना , खुशबु का अस्तित्व है। हक है हर खुशबु का अपने विस्तार को चुनने का। हक है खुशबु को अपना बागीचा ख़ुद ढूँढने का। हक है!
3 comments:
पर खुशबू हर को नहीं मिलती - कुछ भाग्यशालियों को ही।
अगर तू ये सोचता है की लोग तेरी कविता को digg करेंगे तो तू गलट हे - kapil bhatia
may be...
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