Pages

Friday, June 26, 2009

बीते लम्हे

कुछ पल के लिए ही सही,
पर वोह भी क्या पल थे।
जब मैं सिर्फ़ मैं हुआ करता था।
ज़िन्दगी को बादलों में शेर खरगोश
ढूँढने से फुर्सत ही कहाँ मिलती थी।
कुल्फी वाले की घंटी से
शाम की नींद खुलती थी।
हमारी वह छोटी सी गली ही
हमारी सल्तनत थी,
और हम वहां के सिकंदर।
और तब घर से जलेबी के लिए पैसे मिलना,
जंग जीतने के बराबर था।
दादी से मीठी मिश्री के प्रसाद के लिए
अपने भाई से लड़ना आज भी याद है मुझे।
वक्त वक्त की बात है,
अब न दादी रही, न ही वोह सपनों का घरौंदा
जिसके टूट जाने पर भी गम न होता था।
बल्कि अगले दिन और भी खूबसूरत
स्वप्न नगर खोजने की कोशिश रहती।
वाकई, कभी कभी उन पलों को
समय की गुल्लक में से चुरा लाने का मन करता है।
मन करता है खींच लाऊँ उन सभी लोगों को,
उनके कशमकश भरे जीवन में से,
और पूछूं की मेरे कुछ ख्वाब, कुछ मुस्कुराहटें
उनके किसी पुराने बक्से में तोह नहीं?

3 comments:

Unknown said...

उत्कृष्ट! मेरे पास शब्द नहीं हैं बयां करने को की मुझे कैसा लग रहा है! यह सब बातें हम सब के अन्दर होती हैं, पर हम नज़रान्दाज़ कर देते हैं! मुझे ख़ुशी है तुमने बयां की हम सब की दिल की बात! :)

Piyush Aggarwal said...

huzoor aapki zehra nawaazi hai:) shukriya

Anonymous said...

Piyush...

its zarranawaaji....