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Sunday, March 21, 2010

मेरा नाम केसर है!


नाम : केसर
गाँव : मोत्वारा
जिला: अमीरपुर , मध्य प्रदेश

यह कहानी किसी छोटे से गाँव में रहने वाली अबला, मासूम याज़ुल्म की पीड़ित औरत की नहीं है बल्कि एक साधारण भेष मेंछुपी असाधारण केसर की है जो आजकल महानगर दिल्ली केकनाट प्लेस में फल बेचती है। दो दिन पहले फोटोग्राफी करतेहुए मेरी मुलाकात हुई केसर से। नौकरी छोड़ने के बाद से मैंअक्सर कनाट प्लेस चला जाया करता हूँ, सेंट्रल पार्क में बैठना और इन्नर सर्कल में घूमना अच्छा लगता है। मैं अभी भी नहींभुला सका केसर के वह प्यार भरे शब्द " बाबूजी आप गर्मीं में इतनी देर से खड़े हो, यह लो संतरा खा लो।" महानगर मेंइतने प्यार भरे लफ्ज सुनने को ज़माना हो जाता है। भागती हुई ज़िन्दगी में किसी के पास अपनों के लिए ही समय नहीं तोहमैं तोह अजनबी था। सुनके में एक पल को मन ही मन मुस्कुरा दिया। कुछ देर उसके पास खड़े रहने के बाद मैं चलने हीवाला था की उसने संतरा काट के मेरे हाथ में थमा दिया। यह देख के मुझसे रुका नहीं गया और मैंने अपना बैग वहीँ रख
दिया और बैठ के संतरे का लुफ्त लेना शुरू कर दिया। वाकई संतरा बहुत ही लाजवाब था। और जैसे की मेरी दिलचस्पलोगों के बारे में जानने की आदत है, मैंने बातें शुरू कर दी।

मैं - नाम क्या है तुम्हारा?
केसर -
मेरा नाम केसर है (लोगों से देसी खड़ी हिंदी में बोले तोह मानो ज़माना हो चला था)

मैं - कौन से गाँव से हो?
केसर -आप नहीं समझ पाओगे।

मैं - अरे वह क्यूँ? बताओ तोह
केसर - मोत्वारा गाँव से हूँ।

मैं - और जिला कौन सा है?
केसर - अमीरपुर, मध्य प्रदेश


दिल्ली में रहते कितने साल हुए?
यही कोई दस साल हो गए हैं दिल्ली आये हुए।

और तुम्हारा मर्द क्या करता है?
कुछ नहीं, वह नहीं है।

ओह..यह सुनके मैं थोडा चुप हो गया और चुप चाप संतरा खाने लगा। पास ही में दिल्ली कालेज आफ एन्जिनारिंग के बच्चों नेपालिका मेट्रो स्टेशन के बहार युनिवेर्सिटी के खिलाफ जमघट लगा रखा था जिसे रोकने के लिए खूब साड़ी पुलिस लगी हुईथी।

बाबूजी कुछ हो गया है क्या? इतनी पुलिस क्यूँ जमा है?
कुछ नहीं कालेज के बच्चों ने धरना दिया हुआ है। कुछ मांगें हैं उनकी उसी के लिए यह भीड़ जमा है।
केसर - यह बच्चे पढ़ते कम और धरना जादा देते हैं।
(मैं उसकी इस बहुत ही सरल सी कही बात पे फिर मुस्कुरा दिया।)

कुछ पल के बाद मैंने उससे पूछ ही लिया, "क्या मैं आपकी फोटो निकाल सकता हूँ?"
केसर - आप पत्रकार हो?
हाँ कुछ ऐसा ही समझ लो।
केसर - कहाँ से हो? इंडिया टुडे ?
मैंने जादा सवाल बढ़ाते हुए कह दिया "
हाँ, मैं इंडिया टुडे से ही हूँ"

मैंने अपना केमरा अपने बैग से निकला ही था की केसर फिर पूछ पड़ी, पर आप एक बात बताओ, आप यह फोटो कमेटीवालों को तोह नहीं दिखाओगे ना? वह आज कल बहुत परेशानकरते हैं। जब मर्ज़ी आकर उठा जाते हैं और मेरा बहुत नुकसानहो जाता है।

(उस बात में छुपा हुआ दर्द मैं भांप चुका था।)बिलकुल नहीं! सवाल ही नहीं उठता।

इसी बीच पास में खड़े कुछ पुलिस वाले हमारी तरफ आने लगेजिन्हें देख केसर थोड़ी सहम गयी। इसी बीच मैंने उसकी तस्वीरलेनी शुरू कर दी। वाकई, केसर के जीवन के सरल रंगों कोकोई भी फोटोग्राफर अपने कमरे में कैद करना चाहेगा। मुझे उसकी फोटो खेंचता देख कई लोग केसर की तरफ आकर्षितहुए और रुक रुक के उससे फल खरीदने लगे। यह देख उसकीख़ुशी का ठिकाना नहीं रहा। एक मेहनत करते व्यापारी के चेहरेपर ख़ुशी की झलक देख मैं भी अपनी भावनाएं रोक नहीं पा रहाथा। कैमरे के भीतर से उस दृश्य को देखना एक अद्भुत अनुभवहै।

सब ग्राहकों के जाने के बाद मैंने केसर से पूछा की उसका गाँव मेंकोई रिश्तेदार हैं की नहीं? उसके जवाब से मन मेरा और भी भरआया।
केसर - नहीं के ही बराबर हैं, बेटे हैं जो कुछ करते नहीं।थोड़ी सी ज़मीं थी जो क़र्ज़ चुकाने में बिक गयी। पहले मैं सब्जी बेचा करती थी और उसमें मुनाफा भी बहुत था पर अब ज़मीन रही और कोई कमाने वाला। किसी तरह गुज़र बसर हो जाती है बस।
अरे तोह लड़कों को पढने के लिए स्कूल क्यूँ नहीं भेजा? आजकल तोह सरकारी स्कूल में भी पढने के लिए फीस कम है।भेजा था, भाग के गए कमबख्त। अब यह फल बेच के काम चलता है घर का।



कभी अपने गाँव जाने का दिल नहीं करता?
केसर - वहां जाकर करना भी क्या है? मायके के कुछ लोग हैं जो कभी कभी दिल्ली आकर मिल लेते हैं। उसी में परिवारसमझ के खुश हो
लेती हूँ। तभी कहीं से उसका एक बेटा वहां गया और मुझे फोटो खेंचता देख केसर के साथ बैठ गया।मैंने उससे पूछा की तुम अपनी माँ की मदद क्यूँ नहीं करते? तोह उसके जवाब से मैं हैरान और परेशां रह गया। उसने यहकहा की हमारे बाप ने हमारे लिए कुछ नहीं किया तोह हम क्यूँ करें?

यह सुनने के बाद मेरे पास शब्द नहीं थे कुछ कहने को। एक पल को तोह मन करा की उठ कर
उस १४ साल के लड़के को क़स कर झापड़ रसीद दूं और यह कहूं की यह औरत तुम्हारी माँ है, उसने जीवन में वह सब कुछ त्याग दिया जिसकी वह हक़दार थी सिर्फ तुम जैसी औलादों को पालने के लिए। काश उसने तुम्हे पैदा होते ही मार दिया होता तोह अच्छा रहता।

शायद मैं भावनाओ में बहा जा रहा था। शायद इस देश की हर केसर फलवाली की किस्मत लिखी जा चुकी है। शायद कोई
भी इसमें कुछ नहीं कर सकता। केसर जैसी ही औरतें जिंदादिली की सही मिसाल हैं। केसर का रंग अगर हमारी ज़िन्दगी में भी घुल जाये तोह परेशानियाँ पल भर में ही गायब हो जायें।

केसर के फलों के पांच रूपये तोह मैंने दे दिए पर उसके साथ बिताये उन अनमोल पलों का मोल शायद मैं कभी दे सकूं।
अगर आप कभी केसर से मिलें तोह उसे यह ज़रूर बताना की उसके खिलाये संतरे आज भी मैं नहीं भूला हूँ।

Wednesday, March 10, 2010

२१वि शताब्दी के डिजिटल समुदाय में आपका स्वागत है

व्यक्तियों और समुदाय के बीच में हमेशा से ही अटूट सम्बन्ध रहा है पर २१वि शताब्दी के शुरू में ही समाज के पिच्क्सलिकरण हो जाने के कारण इसमें एक और कड़ी जुड़ गयी है यह समाज और इस समाज के सभी लोग डिजिटल हो चुके हैं टूटे हुए पिक्सलों (pixels) की तरह यहाँ के रिश्ते भी कुछ टूटे हुए से मालूम पड़ते हैं यूँ तोह कहने को लोगों के पास एक दूसरे से बात करने के लिए भी समय नहीं पर फेसबुक (facebook), ऑरकुट(orkut) जैसे इन डिजिटल समुदायों पे घंटों वे इधर की बात उधर और उधर की बात इधर करते रहते हैं

पर इसमें बुराई ही क्या है? समय के साथ हर चीज़ बदल गयी है, औद्योगिक क्रांति के साथ जहाँ इस देश की इकोनोमी बदली, वहीँ सूचना और प्रोद्योगिकी के माध्यम से सर्विस सेक्टर ने दिन दुनी रात चौगुनी तरक्की की हमारा रहन-सहन, बोलचाल की भाषा, हमारा मनोरंजन, हमारे बाज़ार और तो और हम सबकी सोच, आखिर सभी कुछ तोह बदल चुका है पर इस निरंतर भागते हुए डिजिटल युग में कुछ और भी ऐसा बदला जिसके बारे में शायद किसी ने कल्पना भी नहीं की होगी वह उपभोगता जिसे २०वि शताब्दी में राजा कहा गया और कई विद्वान लोगों ने उसे भगवान का भी दर्ज़ा दे डाला, वही उपभोगता राजा से महान सम्राट बन चुका है और इसका नया रूप है "समुदाय" और यह समुदाय इन्टरनेट के युग में और भी सशक्त हो रहा है

सदी की शुरुवात में शुरू हुए इन्टरनेट के इस युग में समुदाय नामक इस जीव ने रौद्र रूप ले लिया है जिसके विशालकाय रूप के आगे बड़ी बड़ी सरकारों और कंपनियों ने भी घुटने टेक दिए हैं आज लोग एक दूसरे सिर्फ जुड़े हुए हैं बल्कि हर छोटी बड़ी बात के बारे में चर्चा भी कर रहे हैं मानो की एक मूक व्यक्ति को दोबारा आवाज़ मिल गयी हो और इस आवाज़ को बुलंद करने के लिए अब वह अकेला नहीं है बल्कि उसके ही जैसे हजारों-लाखों लोग उसके साथ खड़े हैं किसी भी बात को जंगल की आग की तरह फैलने में समय नहीं लगता आँख झपकते ही लाखों मील दूर बैठे लोग पल भर में ही किसी भी घटना का हिस्सा बन जाते हैं

समुदाय या जिसे कुछ लोग सोशल मीडिया भी कहते हैं , २१वि शताब्दी का सबसे बड़ा चमत्कार भी है पर इस चमत्कार के पीछे भी कुछ गूढ़ रहस्य हैं जो हमारे समाज के बदलाव का आईना भी हैं ध्यान रहे कोई भी भीड़ समुदाय या कम्युनिटी नहीं कही जा सकती कम्युनिटी या समुदाय के पीछे कुछ ठोस कारण होना ज़रूरी है चंद लोगों का इकठा होना ही कम्युनिटी नहीं हो सकता समुदाय के जुड़े हर सदस्य का एक ही मकसद होता है जो उसको समुदाय से जोड़ कर रखता है वैसे हर कम्युनिटी से जुड़े रहने का एक ठोस कारण हमारी इंसानी फितरत में ही छुपा है और वह है अकेलेपन से डर आज हर इंसान अकेलेपन से डरता है, उसे हर काम के लिए किसी किसी की ज़रूरत होती है इन डिजिटल समुदायों के बनने के पीछे भी कुछ ऐसा ही कारण रहा होगा आज हर बात के लिए हम कमुनिटी पे जाकर पता करते हैं की और लोग क्या कर रहे हैं नया फ़ोन /गाडी खरीदनी है या फिर लम्बी यात्रा करनी है, बचपन से जवानी और जवानी से बुढ़ापा कब इन डिजिटल समुदायों पे कट जाता है पता ही नहीं चलता

पर डिजिटल समुदाय के साथ एकता की जो अटूट शक्ति का जन्म हुआ है उसकी बात ही कुछ और है आज बड़े बड़े व्यापार और सरकारें इसी एकता की वजह से टूटते और बनते हैं क्यूंकि किसी एक के विचार भी समाज और लोगों की सोच में बदलाव ला सकते हैं कहते हैं अमेरिका के राष्ट्रपति चुनावों में बराक ओबामा को इसी कम्युनिटी कल्चर की वजह से जीत मिली समुदाय की ताकात का इससे अच्छा उदाहरण और क्या हो सकता है?


अगले कुछ आने वाले लेखों में मैं समुदाय से जुड़े विषयों के बारे में चर्चा जारी रखूंगा की कैसे हम समुदाय में रहकर उससे होने वाने फायदों को नज़र अंदाज़ कर देते हैंकैसे कोई व्यापार अपने व्यापर को समुदाय के माध्यम से बढा सकता है? इसके आलावा भी समुदाय से जुड़े और भी कई एहम मुद्दों को उठाया जाएगा

तब तक...शुभ रात्रि !

आपका अपना
पियूष अग्रवाल

Wednesday, March 03, 2010

मेरा त्यागपत्र कबूल करें - १४११

श्रीमान प्रधान मंत्री जी और मेरे प्यारे दोस्तों,

जानता हूँ की आज़ाद भारत में सांस लेते ६३ साल बीत चुके हैं और यह मेरा पहला ख़त है, पर बीते कुछ वर्षों में कुछ ऐसी घटनाएँ घटी की मुझे यह पत्र लिखना पड़ रहा है

मुझे आज भी याद है वह दिन जब गणतंत्र भारत के नागरिकों ने मेरा राज्याभिषेक किया था वह दिन मेरे जीवन का शायद सबसे खूबसूरत दिन था सारा जंगल दुल्हन की तरह सजा हुआ था वह सजे हुए हाथियों की सवारी, शाही पोषक में नृत्य करती मोरनियाँ, विशाल आसमान में लड़ाकू चील और बाज़ का और ज़मीं पे तेंदुओं और सियारों की सलामी देती चतुरंगिनी सेना और चारों तरफ से हिमालय का सीना भेदती अनगिनत घोड़ों, सियारों, हिरणों, भालूँ एवं तमाम जंगल के जानवरों की एक स्वर में निकलती वह "शेरखान शेरखान" की गूँज इन्द्र का सिंघासन हिलाने के लिए काफी थी किसी भी राजा के लिए कभी भूलने वाले गौरवशाली पल थे वह इस अवसर पे सरिस्का, बांधवगढ़, रंथाम्बोर और सतपुड़ा सहित सारे देश से मेरे परिवार और मित्र वहां मौजूद थे।


जहाँ एक तरफ देश की आजादी का जोश और ख़ुशी हर जानवर की आँखों में साफ़ झलक रही थी वहीँ अपने महाराज के प्रति उनका अटूट लगाव और सम्मान शायद एक पल के लिए महान सम्राट अशोक को भी हैरत में डाल देता

बीते दशकों में इस देश ने कई पड़ाव तय किये हैं, पड़ोसियों से अपने अस्तित्व को बचाने के लिए कई जंग भी लड़ी, चन्द धार्मिक कट्टरपंथी और सियासतदानों की लगायी आग में बरसों के प्यार को अंगार होते भी देखा, हमारे पडोसी मुल्क के साथ की हमारी नफ़रत में जाने कितनी मासूम जिंदगियां झुलस के रह गयी और हम कुछ कर पाए इसी बात पे इकबाल की वह पंक्तियाँ याद आती हैं की " कुछ बात है की हस्ती मिटती नहीं हमारी, सदियों रहा है दुश्मन दौर--जहाँ हमारा"

भारत देश की जितनी फिर्क आप देशवासीयों को है शायद उतनी ही हम जंगल के जानवरों को भी है मुझे याद है १९७२ के भारत-पाक युद्ध में शहीद हुए हर जवान के बहादुरी के किस्से मुझे वहां से आये परिंदे सुनाया करते थे जिसे सुनकर मुझे जैसे कठोर का मन भी भावुक हो जाता पर इस बात पे सीना गर्व से चोडा हो जाता की भारत की माताओं ने बेटे नहीं बल्कि बब्बर शेरों को जन्म दिया है

हम सबने यहाँ जंगल में भारत देश और यहाँ के देशवासीयों की हर छोटी बड़ी उपलब्धि पे दिल खोल जश्न भी मनाया दिवाली, ईद, ओणम, क्रिसमस, हर त्यौहार पे जंगल को दुल्हन की तरह सजाया

सबकुछ अच्छा चल रहा था, बिलकुल एक सुखी परिवार की तरह पर शायद तभी कुछ शैतानों की नज़र हमारे सुखी परिवार को लग गयी यह जंगल अब वैसा नहीं रहा जैसा कुछ दशक पहले था बरसों से चल रही गोलियों की आवाज़ से हिमालय भी कुछ सहमा हुआ सा है जंगल की नदियों के पानी में लाल रंग के धब्बे अक्सर दिखाई पड़ जाते हैं इसी बीच जाने कितने ही मेरे साथी मित्र मुझसे अलग हो गए और फिर कभी नहीं दिखे मैं और मेरा परिवार उन्हें आज तक वीरान होते इन जंगलों में ढूँढ रहे हैं

आखिर क्यूँ हो रहा है यह सब? क्यूँ?
बढती हुई आबादी की ज़रूरतों को पूरा करने के लिए जंगल बहुत तेज़ी से काटे गए कटते जंगलों में रहने वाले पशुओं को अपने खाने की खोज में जंगल से सटे इंसानी आबादी वाले कस्बों और गाँव में जाना पड़ता जिसकी वजह से वहां के गाँव वालों के साथ उनकी कई बार मुठभेड़ भी हुई सुमात्रा के जंगलों में भी कुछ ऐसा ही हुआ जिसकी वजह से आज यह स्तिथि है की मेरे जैसे कई दुर्लभ जानवर लुप्त होने को है सुंदरबन के जंगलों को सँभालने वाले रक्षक ही वहां के वनों और जीव जंतुओं के भक्षक बन गए देखते ही देखते हमारे घर (जंगल) पर्यटक स्थल बन गए और सरकारी तंत्र ने हमारे परिवार को एक दुर्लब प्रजाति का तमगा थमा दिया

सुना है की इस वर्ष के कॉम्मन वेल्थ खेलों का मेस्कोट भी मुझे ही चुना गया है क्या भारत में दुर्लभ प्रजातियों के लिए भी कोई नया आरक्षण निकाला है सरकार ने? अगर ऐसा है तो मैं अपने मित्र हिमालयन भेडिये का नाम प्रस्तावित करना चाहूँगा क्यूंकि उसका परिवार तोह समाप्ति पे पहुँच ही चुका है आखिर इस देश का इससे अच्छा उपहार और क्या हो सकता है एक लुप्त होते परिवार के लिए

वैसे कहने को बहुत कुछ है पर लगता है मेरे पास समय कम ही बचा है, नदी पे पानी पीने आया था तभी से पाँव में दर्द हो रहा है, शायद किसी की गोली लगी है शिकारी आता ही होगा मुझे लेने, पर विदा लेने से पहले मैं इस विशाल और महान लोकतंत्र देश के राष्ट्रीय पशु के उत्तरदायित्व से मुक्त होना चाहता हूँ वैसे भी मेरी प्रजाति के दिन अब गिने चुने ही हैं और राष्ट्रीय पशु के दायित्व का भार मैं या मेरे परिवार में और कोई भी नहीं उठा पाएगा

मेरी मानिए तो राष्ट्रीय पशु का ख़िताब ही ख़त्म कर दीजिये शायद एक और प्रजाति ख़त्म होने से बच जाये। वैसे
यह "राष्ट्रीय" शब्द जुड़ना काफी खतरनाक है, राष्ट्रीय खेल की हालत तो आप देख ही रहे हैं। यहाँ राष्ट्र से जुडी किसी भी चीज़ से किसी को भी कोई लगाव नहीं। एक आम आदमी की ज़िन्दगी में क्या फर्क पड़ता है, उसके पास सोचने के लिए वैसे भी कम समस्या नहीं है जो वह राष्ट्रीय पशु के बारे में भी सोचे।

तो इन हालत में
कृपा करके मेरा त्यागपत्र कबूल करें और मुझे मेरे कार्य भार से मुक्ति दें बांधवगढ़ के जंगलों से अपने अंतिम कदमों की निशानी पत्र के साथ ही भेज रहा हूँ

आपका राष्ट्रीय पशु
शेरखान