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Wednesday, June 30, 2010

गुड मार्निंग!



उसे याद कर के न दिल दुखा
जो गुज़र गया वो गुज़र गया
कहाँ लौट कर कोई आएगा
जो गुज़र गया वो गुज़र गया

नई सुबह है , नई शाम है
नया शहर है नया नाम है
जो चला गया उसे भूल जा
जो गुज़र गया वो गुज़र गया

मुझे पतझड़ की कहानियां
न सुना सुना के उदास कर
नए हादसों का पता बता
जो गुज़र गया वो गुज़र गया

यह मानने में हर्ज़ क्या है
की इस सुबह का ही इंतज़ार था
रात के ख्वाब को
ख़्वाब में ही रहने दे ज़रा

वह कल गुज़र चुका है, गुज़र जाने दे उसे
यह सुबह टकटकी लगाये बैठी है
बाँध ले इसे अपनी झोली में
दिन भर की थकान के लिए
मुस्कुरा के शुरुआत कर
अपनी हर सुबह का तू

शुभ प्रभात!
photo by: http://www.flickr.com/photos/yarizu/

Wednesday, June 23, 2010

इश्क की दुहाई

तराशा हुस्न ओढ़े फिरते हैं वह,
पर इश्क को आह भरने की इज़ाज़त नहीं।

पल भर में सांसें चुरा लेते हैं,
और हमें शिकायत करने की इज़ाज़त नहीं।

जाने कब से दीवाना बना रखा है ,
पर हमें दिल लगाने की इज़ाज़त नहीं।

उनकी हसी भी एक कशिश है,
पर हमें मुस्कुराने की इज़ाज़त नहीं।


नज़रों के इशारे से सब कुछ बयां करते हैं,
और हमें हाल--दिल सुनाने की इज़ाज़त नहीं

ख्वाबों में आना अब उनकी आदत है,
पर हमें उनकी नींद उड़ाने की इज़ाज़त नहीं

उसके शब्द कानों को ग़ज़ल मालूम पड़ते हैं,
पर हमें शायराना होने की इज़ाज़त नहीं

तराशा हुस्न ओढ़े फिरते हैं वह,
पर इश्क को आह भरने की इज़ाज़त नहीं।


Monday, June 07, 2010

बुद्धि जीवी की जय हो


हाँ मैं बुद्धि-जीवी हूँ, पर इसमें गलती मेरी नहीं. कुछ ऐसा ही कहा मेरे एक जानकार मित्र ने जब हमारी किसी छोटी सी बात पर कहा-सुनी हो गयी।

यूँ तो बुद्धि जीवी होने में कोई बुराई नहीं पर बात यह है की बुद्धि जीवी
को अक्सर लोग कुछ अलग ही नज़रिए से देखते हैं। जी हाँ, बुद्धिजीवी वे लोग हैं जिन्हें सामान्य भाषा में इंटेलेक्चुअल भी कहा जाता है। चेहरे से शुशील और सरल दिखने वाले यह लोग भेजे से टेढ़े किस्म के होते हैं जिसके कारण कभी कभी उपहास के पात्र भी बन जाते हैं। पर कभी कभी आम इंसान इनसे डर के भीचलता है, न जाने कब क्या कह बैठें और फिर बेचारा आम आदमी अपनी खोपडिया खुजाने के आलावा कुछ नहीं कर पाएगा।

पर
शायद वास्तविकता तो कुछ और ही है, क्यूंकि बुद्धिजीवी भी कई प्रकार और आकर के होते हैं। एक किस्म तो उन बुद्धि जीवियों की होती है जिनके पास उधार की बुद्धि है और वे दूसरों को उस उधार की बुद्धि में से दिल खोल के बुद्धि बांटते फिरते हैं या यूँ कहें वाह वही बटोरने के लिए ज़बरदस्ती ही बुद्धि चेपते फिरते हैं।

दूसरी किस्म वे हैं जिनका जीवन बुद्धि को मोटी-मोटी किताबों और महापुरुषों के सत्संग रुपी ज्ञान द्वारा घिसने और उसको तेलपिलाने में गुज़र जाता है। ऐसे बुद्धि जीवी अपनी फौलाद सी बुद्धि का प्रयोग करके लोगों एवं समाज का उद्धार करने का प्रयत्न ही करते रहते हैं।

तीसरे वह धूर्त पापी हैं जो बुद्धि जीवियों की ही बुद्धि का जन प्रसारण
करके अपना उल्लू सीधा कर लेते हैं। मतलब बुद्धि-बाज़ार के सबसे बड़े थोक के भाव विक्रेता यही जनाब हैं। आय दिन बुद्धि की प्रदर्शनी भी लगाते हैं और खूब पैसा कमाते हैं।

इन तीनो को यदि एक मंच पर उतार दिया गया तो ज्ञान की गंगा, जमुना और सरस्वती एक ही मंच पे से फूट पडेंगी। पर गौर से देखा जाये तो इन सब में पिसता आम आदमी ही है। बिना बात के ज्ञान की सहस्त्र धाराओं में स्नान करना पड़ता है और कभी कभी तो चाहते हुए डुबकी और गहरे गोते भी लगाने पड़ते है।

एक बार तो आम आदमी ने पूछ ही लिया , अरे भाई बुद्धि जीवी एक बात तो बताओ - तुम इतना सोच कैसे लेते हो? तो बुद्धिजीवी ने अपने मुख-मंडल पे विचित्र और गहरी चिंतन की रेखा खेंचते हुए विनम्र भाव से कहा की महोदय -

कलियुग में जैसे हर घर की ज़रूरत टी-वी और बीवी है,
इस समाज की ज़रूरत हम बुद्धि-जीवी है।
सोचना हमारे बाएँ हाथ का खेल है,
हमारे हर शब्द में छुपी एक रहेस्य की रेल है।

जनता जनार्दन तो आप हैं,
पर बुद्धि के मामले में हम सबके बाप हैं।
न देता कोई हमको चुनौती है,
क्यूंकि सोचना तो भाई हमारी बपोती है।

ज्ञान विज्ञानं के दर्शन भी हम कराते हैं,
पर हम फ़ोकट में किसी को नहीं पकाते हैं।
न समझना हमको किसी से भी कम,
क्यूंकि बुद्धि जीवी हैं हम, बुद्धि जीवी हैं हम, बुद्धि जीवी हैं हम।।

वैसे तो बुद्धि जीवी के बारे में जितना भी कहो कम है, यह साधारण से काम को अपनी बुद्धि के बल पर असाधारण सा दिखा देते हैं और फिर वह काम और बात खास हो जाती है। पर प्रश्न यह है की क्या वाकई समाज को इन जैसे बुद्धि जीवियों की आवश्यकता है? मैं नहीं जानता और न ही इसके बारे में सोचना चाहता हूँ क्यूंकि सोचना तो बुद्धि जीवी का काम है। पर मेरी मानिए तो एक साधारण इंसान बल्कि हर इंसान के लिए सरल होना बहुत ज़रूरी है क्यूंकि उसी में उसका असली अस्तित्व छुपा है।

Friday, June 04, 2010

उधेड़बुन - एक आधुनिक शहर

आइये! स्वागत है आपका इस शहर में जिसका नाम है उधेड़बुन। यह भारत के तमाम उन छोटे बड़े शहरों, खासकर उनमहानगरों से अलग है जहाँ तेज़ी से भागती हुई ज़िन्दगी और इंसान के बीच का फासला दिन पर दिन बढ़ता जा रहा है। पर खासबात यह है की उधेड़बुन शहर का निर्माण भी उन्ही महानगरों की आपा-धापी भरे जीवन शैली की वजह से हुआ है। ऐसा नहीं हैकी छोटे शेहेर से लोग उधेड़बुन शहर नहीं आते, अक्सर वे नज़दीक के महानगर पहले जाते हैं और बाद में खुदबखुद ही उधेड़बुनपहुँच जाते हैं।

बढती हुई आबादी का असर उधेड़बुन पे इतना पड़ा है की महानगरों की सारी आबादी उधेड़बुन शिफ्ट होना चाहती है। उधेड़बुन में रहना यहाँ के बाशिंदों की ज़रूरत सी हो गयी है। यह जानते हुए भी की यहाँ पर रहना किसी भी अकलमन्द इंसान के लिएकीमती समय की बर्बादी के सिवा कुछ भी नहीं फिर भी हर इंसान उधेड़बुन शहर में रहने कभी न कभी ज़रूर आता है। बड़ी बड़ीसडकें, इमारतें , शापिंग माल या रंगीन बाज़ार, उधेड़बुन शहर में हर वह चीज़ मौजूद है जो किसी साधारण व्यक्ति को भी भटकासकती है। पर भटकना तो उधेड़बुन में फेशन माना जाता है और फिर यदि आप भटक गए तो घबराने की ज़रूरत नहीं, आपके पास मोबाइल नामक यन्त्र होना चाहिए जो कहीं से भी आपको दोबारा महानगर की आपा धापी में पटक देगा।

उधेड़बुन में रहने वाले लोग अकसर एक दुसरे से बात करने से कतराते हैं। क्यूँ? पता नहीं। शायद हर कोई अपने उधडे हुए कोबुनने की उधेड़बुन में लगा हुआ है। पर इसमें उनकी कोई गलती नहीं, इस सामाजिक उधेड़बुन का हल हमारे नेताओं के पास भीनहीं है। वे तो खुद उधेड़बुन शहर में अपनी सत्ता बचाने की उधेड़बुन में लगे हुए हैं। यह वक्त ही कुछ ऐसा है, व्यापारियों को पैसाकमाने की उधेड़बुन, छात्रों को परीक्षा में पास होने की उधेड़बुन, नौकरी पेशा को नौकरी सँभालने की उधेड़बुन। अब तो लगता हैकी उधेड़बुन को भारत देश की राजधानी बना दें तो कुछ गलत न होगा। खैर अब मैं आपको आपकी उधेड़बुन में छोड़ रहा हूँ, क्या करूँ, मेरी उधेड़बुन मेरा इंतज़ार कर रही है। फिर मिलेंगे किसी और उधेड़बुन के बीच और सोचेंगे इस शहर से निकलने का उपाय।

आपका अपना
पियूष