19 फ़रवरी , २०१०
किसी भी हिल स्टेशन की तरह भीमताल की सुबह भी बेहद हसीन थी। होटल लेक रेसोर्ट की बालकनी से बहार का नज़ारा बेहद खुशनुमा और दिल-ओ-दिमाग को तर-ओ-ताज़ा करने वाला था। धुली हुई और साफ़ सड़क, स्कूल को जाते छोटे बच्चे, उगते हुए सूरज की रौशनी में नहाया हुआ भीमताल लेक का पानी और उसमें तैरती मनमोहक बत्तखें। ज़िन्दगी को इस तरह से जागते हुए देखना एक अदभुत अनुभव है।
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भीमताल के होटल लेक रेसोर्ट के बारे में मैंने पहले भी लिखा था, वैसे तोह होटल कुछ खास नहीं पर उनका रसोइया पक्का कहीं से अगवा किया गया है, कमबख्त इतना अच्छा खाना बनता है की उँगलियाँ चाट जाएंगे। हमेशा की तरह भूके हम लोगों ने nashआर्डर दिया - ३ पलते आलू प्याज के परांठे विद प्लेन दही, अचार और चटनी , २ पलते डबल अंडे का ऑमलेट विद टोस्ट और गरमा गरम चाय। बस ज़िन्दगी को और क्या चाहिए।
हमने नाश्ता करने के बाद फटाफट अपना सामन बाँधा और चेक आउट करने की तय्यारी शुरू कर दी। हमने सामन को गाडी में रख दिया और भीमताल लेक में बोटिंग करने को चल पड़े। लेक में बोटिंग का आकर्षण ही कुछ ऐसा है जिसके बिना कोई भी इंसान नहीं रह सकता। ३०० रुपये में नाविक ने हम तीनों को अपनी प्यारी सी नाव में बिठा के भीमताल लेक का १ चक्कर कटाने के लिए मान गया। नाव में सवारी का नाम सुनते ही हमारे मित्र की शकल पे ख़ुशी की चमक दौड़ गयी। तकरीबन २५० फूट गहरा यह लेक बेहद खूबसोरत और शहर की शान है। हम तीनों ने नाव में भीमताल लेक की सैर को खूब मज़े से एन्जॉय किया। कभी कभी लगता है की हम बड़े शहर वाले यह छोटी छोटी खुशियों से वंचित रह जाते हैं। यहाँ बड़ी बड़ी इमारतें, शौपिंग मोल, हाइपर मार्केट, मल्टीप्लेक्स होने के बाद भी मैं अधूरा सा महसूस करता हूँ। कई बार तोह ऐसा लगता है मानो एक विशाल कंक्रीट के जंगल में मैं कहीं खो गया हूँ। ऐसे में भीमताल के ताल में नाव की सवारी एक अदभुत अनुभव है।
हम भीमताल से चलने ही वाले थे जब मेरे मित्रों ने चलने से पहले कुछ खरीदारी करने का मन बना लिया। और वाकई दाद देनी पड़ेगी, यह छोटी सी लकड़ी की नाव बेहद मनमोहक है। कितनी अजीब बात है, दिल्ली के जनपथ या पालिका आदि मार्केटों में बिकने वाली चीज़ें हम कभी नहीं देखते पर जब हम कहीं बहार जाते हैं तोह वोही सामान अचानक से खूबसूरत दिखने लगता है। शायद वादी की हवा का असर है। :)
और फिर हम चल पड़े अपनी असली मंजिल की ओर, जिल्लिंग की वादी हमें पुकार रही थी। तीनों यात्रियों की ख़ुशी चेहरे से साफ़ झलक रही थी। भीमताल से करीबन २५ किलोमीटर की दूरी पे बसा पदमपुरी नामक जगह है जहाँ से और ४ किलोमीटर की चढ़ाई करने के बाद आप जिल्लिंग एस्टेट पहुँचते हैं। रास्ते में खुटानी, चांफी और मटियाल नाम के ३ छोटे पहाड़ी गाँव पड़ते हैं। भीमताल से मटियाल की रोड काफी अछि बनी हुई है और आस पास के दृश्य आपका मन मोहने के लिए काफी हैं। पहाड़ों के बीच की पतली सड़क से गुजरती हमारी कार, और सभी यात्री कुछ ही देर में वादी के दृश्यों में खो जाते हैं। बस यूँ ही गाते गुनगुनाते हम तक़रीबन १ घंटे के भीतर पदमपुरी पहुँच गए।
पदमपुरी पहुँचते ही हमें यकीं हो गया की जिल्लिंग आने का निर्णय गलत नहीं था। शांत जगह, सीधे साधे लोग, मट्टी के बने घर और घर के आँगन की दिवार पे हाथ से बनी चित्रकारी, वह बूढी मौसी जिसके चेहरे की चमक के आगे शहरी चमक भी कुछ नहीं, मानो हमारा दिल खोल के अपने गाँव में स्वागत कर रही हो। और हाँ हमारी यात्रा का सबसे अहेम सदस्य गुड्डू , वह भी हमें पदमपुरी में ही घास चरता हुआ मिला। गुड्डू किसी इंसान का नहीं बल्कि एक पहाड़ी घोड़े का नाम है, दिन भर घास चरना जिसका काम है , यूँ की यह तोह कविता ही हो गयी ;) पर गुड्डू जैसा खूबसूरत और सुडौल घोडा उत्तराँचल और कुमाओं में ढूँढने से भी नहीं मिलेगा। मेरे दोनों मित्र का दिल उसको देखते ही फ़िदा हो गया। और जब यह पता चला की गुड्डू ही हमें ऊपर एस्टेट पे छोड़ेगा तोह हमारी ख़ुशी का ठिकाना ही न रहा।
मेरी एक मित्र को हमने गुड्डू पे बिठाया और चढ़ाई शुरू कर दी। हमें पता था की अगले १ घंटे की चढ़ाई काफी कठिन होने वाली है। यूँ तोह चढ़ाई मात्र ३ किलोमीटर की ही है पर शहर के घी और तेल भरे खाने और जंक फ़ूड का खामियाजा अब भरना पड़ेगा यह नहीं पता था। हिम्मत करके और बजरंग बलि का नाम लेके मैंने और अभिजित ( मेरे मित्र ) ने चढ़ाई शुरू कर दी। रास्ते में कई बार हमारी टाएँ टाएँ फिश होने वाली थी पर वादी की साफ़ हवा ने हमारे अन्दर एक नयी स्फूर्ति फूँक दी और हम बढ़ते चले गए। चढ़ाई करते वक़्त मुझे अपने बचपन की वह बात याद आ गयी जो मेरे एक अध्यापक ने मुझसे कही थी - " जीवन में जब तुम्हे लगे की तुम थक गए हो और आगे नहीं बढ़ सकते, समझ लेना तुम्हारी मजिल काफी करीब है क्यूंकि तुम काफी रास्ता तय कर चुके हो। "
जैसे जैसे हम ऊपर चढ़ते गए, जंगल और भी घना होता चला गया और रास्ता और भी कठिन। रास्ते में मैंने पहाड़ी गाँव की ज़िन्दगी को काफी नजदीक से देखा जिसको देख कर कभी तोह यह लगा की क्या मैं वाकई हिंदुस्तान में हूँ? इतनी सरल, सादा और सुन्दर जीवन व्यतीत करने वाले यह लोग कौन हैं? इसी उधेड़बुन में हम ऊपर तक पहुँच गए जहाँ हमारा स्वागत कर्नेल लाल और उनके शानदार कुत्तों की फ़ौज ने की। कर्नेल लाल वह शक्स हैं जिन्होंने ज़िन्दगी और मौत को बहुत ही करीब से देखा है। अपने जीवन में उन्होंने बहुत दुनिया देखि है और काफी खुश मिजाज़ और जिंदादिल किस्म के इंसान हैं। जिल्लिंग को एक शानदार एस्टेट बनाने के पीछे उनका एक निजी स्वार्थ छुपा हुआ है, और यह मुझे उनसे बात करके ही पता चला। उन्हें अच्छा लगता है जब कोई यात्री आता है और उनके साथ कुछ समय बिताता है। जीवन में अगर उन्होंने कुछ कमाया तोह वह है उनका ढेर सारा अनुभव और खूब सारी इज्ज़त। उन्हें जानवरों से बेहद प्रेम है, शायद इसीलिए उनके एस्टेट में जानवरों का खयाल बहुत ही अछे से रखा जाता है। कुत्तों के साथ उनका लगाव देख कर मैं और मेरे मित्र अचंबित थे। तक़रीबन ४७ साल से जिल्लिंग में बसे कर्नेल लाल की बेटी नंदिनी उनका एस्टेट सँभालने में उनकी मदद कर रही है। इंसान और जानवरों के बीच के इतने लगाव को देख किसी का भी दिल भर आएगा।
खैर हमने कर्नेल के साथ चाय पीकर उनसे विदा ली। हमारा कॉटेज पहाड़ी पे थोड़ी और ऊंचाई पे था और पेट में चूहों का क्रिकेट टूर्नामेंट फिर से शुरू हो चूका था। हमने जल्दी से ऊपर पहुंचकर धुप सकते हुए जमके पेट पूजा की जहाँ तरह तरह के पकवान हमारा इंतज़ार कर रहे थे। पेट पूजा करके हम तीनों कुछ देर को सुस्ता लिए और फिर शाम को उठकर दया के साथ सबसे ऊपर वाली पहाड़ी पे घूमने निकल गए। अरे, मैं आपको दया के बारे में तोह बताना ही भूल गया। दया पे जिल्लिंग एस्टेट की रख रखाव का सारा दारोमदार है। एक बात तोह तय है, कर्नेल को दया से बेहतर मुलाजिम उत्तराँचल या कुमाऊँ में तोह क्या भारत में भी नहीं मिल सकता।
जिल्लिंग की सबसे ऊँची पहाड़ी से हिमालय का नज़ारा देखते ही बनता है। ऊपर पहुंचकर आपको हिमालय की विशालता का अंदाज़ा लग जाता है। इंसान कितना भी बड़ा हो जाये, इन पहाड़ों के आगे उसका हर अभिमान धराशायी हो जाता है। घने जंगलों के बीच से निकलता वह रास्ता भांति भांति की खुशबुओं से भरा है। दया सारे रस्ते हमें तरह तरह के पेड़ पौधों से अवगत करता गया जो सिर्फ हिमालय के जंगलों में ही पाए जाते हैं। रोडनडोन उनमें से ही एक फूल है जो पहाड़ों में पाया जाता है। कहते हैं की इस फूल के पत्तों को खाने के बाद ह्रदय रोग नहीं हो सकता। प्रकृति में छुपे ऐसे अनगिनत रहस्य हैं जो इंसान को अगर पता चल जाएं तोह उसकी आँखें खुली की खुली रह जाएंगी। पर अफ़सोस इस बात का है की हम इंसान खुद को उस प्रकृति से ऊपर समझते हैं जिसने इस विशाल धरती को लाखों सालों में सिर्फ हमारे लिए सींचा और सजाया।
प्रकृति के उस दृश्य को मैं कभी नहीं भुला पाउँगा। अँधेरा होने से पहले ही हम वापस अपने काटेज में आ गए जहाँ हाथ सकने के लिए आग का प्रबंध किया जा चुका था। अब तक हमारा शरीर जवाब दे चुका था पर मन नहीं. जिल्लिंग का सफ़र अभी जारी रहेगा। शुभ रात्रि!
<<पहला भाग
और फिर हम चल पड़े अपनी असली मंजिल की ओर, जिल्लिंग की वादी हमें पुकार रही थी। तीनों यात्रियों की ख़ुशी चेहरे से साफ़ झलक रही थी। भीमताल से करीबन २५ किलोमीटर की दूरी पे बसा पदमपुरी नामक जगह है जहाँ से और ४ किलोमीटर की चढ़ाई करने के बाद आप जिल्लिंग एस्टेट पहुँचते हैं। रास्ते में खुटानी, चांफी और मटियाल नाम के ३ छोटे पहाड़ी गाँव पड़ते हैं। भीमताल से मटियाल की रोड काफी अछि बनी हुई है और आस पास के दृश्य आपका मन मोहने के लिए काफी हैं। पहाड़ों के बीच की पतली सड़क से गुजरती हमारी कार, और सभी यात्री कुछ ही देर में वादी के दृश्यों में खो जाते हैं। बस यूँ ही गाते गुनगुनाते हम तक़रीबन १ घंटे के भीतर पदमपुरी पहुँच गए।
पदमपुरी पहुँचते ही हमें यकीं हो गया की जिल्लिंग आने का निर्णय गलत नहीं था। शांत जगह, सीधे साधे लोग, मट्टी के बने घर और घर के आँगन की दिवार पे हाथ से बनी चित्रकारी, वह बूढी मौसी जिसके चेहरे की चमक के आगे शहरी चमक भी कुछ नहीं, मानो हमारा दिल खोल के अपने गाँव में स्वागत कर रही हो। और हाँ हमारी यात्रा का सबसे अहेम सदस्य गुड्डू , वह भी हमें पदमपुरी में ही घास चरता हुआ मिला। गुड्डू किसी इंसान का नहीं बल्कि एक पहाड़ी घोड़े का नाम है, दिन भर घास चरना जिसका काम है , यूँ की यह तोह कविता ही हो गयी ;) पर गुड्डू जैसा खूबसूरत और सुडौल घोडा उत्तराँचल और कुमाओं में ढूँढने से भी नहीं मिलेगा। मेरे दोनों मित्र का दिल उसको देखते ही फ़िदा हो गया। और जब यह पता चला की गुड्डू ही हमें ऊपर एस्टेट पे छोड़ेगा तोह हमारी ख़ुशी का ठिकाना ही न रहा।
मेरी एक मित्र को हमने गुड्डू पे बिठाया और चढ़ाई शुरू कर दी। हमें पता था की अगले १ घंटे की चढ़ाई काफी कठिन होने वाली है। यूँ तोह चढ़ाई मात्र ३ किलोमीटर की ही है पर शहर के घी और तेल भरे खाने और जंक फ़ूड का खामियाजा अब भरना पड़ेगा यह नहीं पता था। हिम्मत करके और बजरंग बलि का नाम लेके मैंने और अभिजित ( मेरे मित्र ) ने चढ़ाई शुरू कर दी। रास्ते में कई बार हमारी टाएँ टाएँ फिश होने वाली थी पर वादी की साफ़ हवा ने हमारे अन्दर एक नयी स्फूर्ति फूँक दी और हम बढ़ते चले गए। चढ़ाई करते वक़्त मुझे अपने बचपन की वह बात याद आ गयी जो मेरे एक अध्यापक ने मुझसे कही थी - " जीवन में जब तुम्हे लगे की तुम थक गए हो और आगे नहीं बढ़ सकते, समझ लेना तुम्हारी मजिल काफी करीब है क्यूंकि तुम काफी रास्ता तय कर चुके हो। "
जैसे जैसे हम ऊपर चढ़ते गए, जंगल और भी घना होता चला गया और रास्ता और भी कठिन। रास्ते में मैंने पहाड़ी गाँव की ज़िन्दगी को काफी नजदीक से देखा जिसको देख कर कभी तोह यह लगा की क्या मैं वाकई हिंदुस्तान में हूँ? इतनी सरल, सादा और सुन्दर जीवन व्यतीत करने वाले यह लोग कौन हैं? इसी उधेड़बुन में हम ऊपर तक पहुँच गए जहाँ हमारा स्वागत कर्नेल लाल और उनके शानदार कुत्तों की फ़ौज ने की। कर्नेल लाल वह शक्स हैं जिन्होंने ज़िन्दगी और मौत को बहुत ही करीब से देखा है। अपने जीवन में उन्होंने बहुत दुनिया देखि है और काफी खुश मिजाज़ और जिंदादिल किस्म के इंसान हैं। जिल्लिंग को एक शानदार एस्टेट बनाने के पीछे उनका एक निजी स्वार्थ छुपा हुआ है, और यह मुझे उनसे बात करके ही पता चला। उन्हें अच्छा लगता है जब कोई यात्री आता है और उनके साथ कुछ समय बिताता है। जीवन में अगर उन्होंने कुछ कमाया तोह वह है उनका ढेर सारा अनुभव और खूब सारी इज्ज़त। उन्हें जानवरों से बेहद प्रेम है, शायद इसीलिए उनके एस्टेट में जानवरों का खयाल बहुत ही अछे से रखा जाता है। कुत्तों के साथ उनका लगाव देख कर मैं और मेरे मित्र अचंबित थे। तक़रीबन ४७ साल से जिल्लिंग में बसे कर्नेल लाल की बेटी नंदिनी उनका एस्टेट सँभालने में उनकी मदद कर रही है। इंसान और जानवरों के बीच के इतने लगाव को देख किसी का भी दिल भर आएगा।
खैर हमने कर्नेल के साथ चाय पीकर उनसे विदा ली। हमारा कॉटेज पहाड़ी पे थोड़ी और ऊंचाई पे था और पेट में चूहों का क्रिकेट टूर्नामेंट फिर से शुरू हो चूका था। हमने जल्दी से ऊपर पहुंचकर धुप सकते हुए जमके पेट पूजा की जहाँ तरह तरह के पकवान हमारा इंतज़ार कर रहे थे। पेट पूजा करके हम तीनों कुछ देर को सुस्ता लिए और फिर शाम को उठकर दया के साथ सबसे ऊपर वाली पहाड़ी पे घूमने निकल गए। अरे, मैं आपको दया के बारे में तोह बताना ही भूल गया। दया पे जिल्लिंग एस्टेट की रख रखाव का सारा दारोमदार है। एक बात तोह तय है, कर्नेल को दया से बेहतर मुलाजिम उत्तराँचल या कुमाऊँ में तोह क्या भारत में भी नहीं मिल सकता।
जिल्लिंग की सबसे ऊँची पहाड़ी से हिमालय का नज़ारा देखते ही बनता है। ऊपर पहुंचकर आपको हिमालय की विशालता का अंदाज़ा लग जाता है। इंसान कितना भी बड़ा हो जाये, इन पहाड़ों के आगे उसका हर अभिमान धराशायी हो जाता है। घने जंगलों के बीच से निकलता वह रास्ता भांति भांति की खुशबुओं से भरा है। दया सारे रस्ते हमें तरह तरह के पेड़ पौधों से अवगत करता गया जो सिर्फ हिमालय के जंगलों में ही पाए जाते हैं। रोडनडोन उनमें से ही एक फूल है जो पहाड़ों में पाया जाता है। कहते हैं की इस फूल के पत्तों को खाने के बाद ह्रदय रोग नहीं हो सकता। प्रकृति में छुपे ऐसे अनगिनत रहस्य हैं जो इंसान को अगर पता चल जाएं तोह उसकी आँखें खुली की खुली रह जाएंगी। पर अफ़सोस इस बात का है की हम इंसान खुद को उस प्रकृति से ऊपर समझते हैं जिसने इस विशाल धरती को लाखों सालों में सिर्फ हमारे लिए सींचा और सजाया।
प्रकृति के उस दृश्य को मैं कभी नहीं भुला पाउँगा। अँधेरा होने से पहले ही हम वापस अपने काटेज में आ गए जहाँ हाथ सकने के लिए आग का प्रबंध किया जा चुका था। अब तक हमारा शरीर जवाब दे चुका था पर मन नहीं. जिल्लिंग का सफ़र अभी जारी रहेगा। शुभ रात्रि!
<<पहला भाग
1 comment:
सुन्दर चित्र है ..और यात्रा विवरण भी.
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