परिंदों की उड़ान के पीछे से दौड़ते हुए बादल।
अपने अस्तित्व की लडाई लड़ने को मजबूर हैं हर पल।
बरसना चाहते हैं वे भी इस मायूसी के आलम में।
बहाना चाहते हैं बारिश के आंसू तपिश के इस मंज़र में।
अपने अस्तित्व की लडाई लड़ने को मजबूर हैं हर पल।
बरसना चाहते हैं वे भी इस मायूसी के आलम में।
बहाना चाहते हैं बारिश के आंसू तपिश के इस मंज़र में।
यह वोह हैं जिनकी गरज पे मौसम बदल जाते हैं,
यह वोह हैं जिनकी मुस्कराहट पे इन्द्रधनुष खिल जाते हैं
चमक जाएं तोह बिजली भी शरमाये,
मचल जायें तोह पर्वत का दिल भी थर्राए।
ढूँढ लो जो ढूँढ पाओ इसमें,
शायद वोह पुराने शेर- खरगोश वहीँ छुपे बैठे हों,
कुछ रंग बिरंगे गुब्बारे भी मिल सकते हैं,
कटी पतंगों में uljhe हुए ।
न जाने क्या क्या छुपा rakha है,
इन रुई के कारखानों में।
चाँद की जवानी दबी राखी है,
इन्ही मखमली मैदानों में।
यूँ तोह जवानी के दिनों में,
उसने भी खूब यात्रा की होगी।
पाँच महासागरों से लेकर,
गगन भेदी पहाडों से टक्कर ली होगी।
पर अब वोह बादल थोड़ा बूढा हो चला है।
शायद ज़िन्दगी रुपी हवा के थपेडों ने,
उसे भी शांत कर दिया है।
अब वोह भी थोड़ा ठहराव चाहता है।
अब वोह भी थोड़ा समय अपनों के साथ
बिताना चाहता है।
उन्ही खेत और जंगलों के साथ,
जिन्हें कभी ख़ुद को काट कर उसने सींचा था।
अरे बातों बातों में समय का पता ही नहीं चला,
मौसम कुछ ख़राब होता दिखा रहा है।
लगता है हवा का तेज़ झोंका नजदीक ही है।
पर शायद इस बार वोह श्वेत बादल इन थपेडों को न झेल पाए।
2 comments:
बड़ी सुंदर विडंबना
शुक्रिया अर्चना, आपकी रचनाएँ भी दिल को छु लेने वाली हैं. और जिस मकसद के लिए आप कार्य कर रही हैं वोह अत्यंत ही काबिले-तारीफ़ है. आशा है आप अपने हर कार्य में सफल होंगी. उम्मीद है आपको मेरी बाकी की रचनाएँ भी अछि लगेंगी
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