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Monday, August 17, 2009

चाचा छक्कन की दिलचस्प दास्ताँ - पार्ट २ ( पहला भाग )


आख़िर कौन भुला सकता है ३० साल पहले की वह रंगों में नहाई वृन्दावन की मदमस्त सुबह। मेरे जीवन का ऐसा अनुभव जो शायद किसी के भी जीवन का रुख मोड़ सकता है। मेरे बाबा यानि की राए बहादुर दिन दयाल के ही एक बचपन के मित्र गोकुल दास जी, जो मथुरा के काफ़ी पुराने रहने वालों में से एक हैं, हम इस साल उन्ही के घर होली मनाने जा रहे हैं। बचपन से आज तक मैंने कई बार मथुरा की होली के बारे में सिर्फ़ सुना ही था। कभी लोगों से और कभी माँ ही वृन्दावन , मथुरा और बरसाने की होली के बारे में बताती और मेरा मन वहां की होली देखने को और भी करता। जब एक नौकर से पता चला की बाबा को मथुरा से होली का न्योता आया है तब मेरी खुशी का ठिकाना न रहा। हलाँकि मैं इक्कीस बरस का हो चुका था पर बाबा के डर के मारे कभी भी बिना पूछे मथुरा तोह क्या पुरानी दिल्ली के बहार भी नहीं गया था। बिना पूछे जाना शाही शान के प्रति गुस्ताखी जो मानी जाती। भई आख़िर हमारा खानदान मुग़ल परिवार के काफ़ी करीब था, तोह उस हिसाब से हमारी हवेली भी किसी राज परिवार से कम न थी। मेरी दो बहनों ने तोह शादी तक कभी गली के बाहर की दुनिया ही न देखी थी। कभी कभी बाबा के इस कड़क रवय्ये से मैं काफ़ी नाखुश रहता और इस बात का ज़िक्र भी मैंने एक दफा माँ से किया था जिसपर उसने मुझे ग़लत दोस्तों की सांगत का असर बता के चुप करा दिया। खैर, समय के साथ मुझे भी इस बात का भरोसा हो गया की शाही परिवारों में यह बातें आम ही होती हैं और चूंकि पिताजी की उम्र बढती जा रही है तोह शाही रस्म को निभाने के लिए उनके बाद उस गद्दी को मुझे ही संभालना होगा।

वैसे तोह गोकुल दास जी के परिवार का हमारे यहाँ बचपन से आना जाना था पर शायद यह पहली बार हम उनके घर होली मानाने जा रहे थे। इतने वर्षों में हमने जादातर होली अपनी हवेली में ही मनाई थी, बाबा के सख्त निर्देश थे की कोई भी व्यक्ति हवेली के बहार जाकर होली नहीं मनायेगा। जो लोग बाबा को गुलाल लगाने आते, वे ही हम सबको थोड़ा सा रंग लगा जाते। वोह तोह जब हम कालेज में आए तोह माँ के जिद्द करने पे उन्होंने मुझे अपने दोस्तों के साथ कुछ घंटों के लिए बाहर होली मनाने की मंजूरी दे दी। यूँ तोह होली पे पुरानी दिल्ली में भी हुल्लड़बाजी कम नहीं होती, सुबह से ही सब छतों पे खड़े लोग रंगों की बाल्टी लिए हर आने जाने वाले का स्वागत करने को तैयार रहते हैं। हर नुक्कड़ पे रंंगे हुए लड़के- लड़कियों की फौज आपको भिगोने की साजिश में तैनात रहती है। और फ़िर वोह चोराहों पे गरमा गर्म समोसे, जलेबी और गुजिया की सुगंध तोह किसी को भी बेहोशी के आलम से उठाने के लिए काफ़ी है। इन सब के बाद भी मथुरा की होली देखने की उत्सुकता हमेशा से मेरे दिल में रही।

हम होली से तीन दिन पहले ही गोकुल दास जी के यहाँ पहुँच गए। गोकुल दास जी के घर में सभी ने हम सबसे बड़े ही प्रेम के साथ बात की। मानना पड़ेगा की दिल जीतना तोह कोई ब्रज के लोगों से सीखे। होली से दो दिन पहले पहुंचकर हमने गोकुल दास जी के लड़कों के साथ खूब धमाल मचाने की तय्यारी में जुट गए। तरह तरह के रंग तैयार करना, आँगन में तालाब की सफाई करवाना, और तोह और ताज़ा गोबर का भी प्रबंध हो चुका था। बस अब तोह इंतज़ार था मथुरा की गोपियों को रंगने का।

आख़िर वोह दिन आ ही गया जिस दिन पूरा देश वृन्दावन और मथुरा की ताल पे थिरक उठता है। ब्रज के रन बाँकुरे सुबह से ही तय्यारी में लगे हुए थे की आज तोह हर आने जाने वाली छोरी को बिना रंंगे नहीं जाने देंगे।

होली के दिन , कृष्ण की नगरी में रंग और प्रेम के इस कुम्भ को देखने के लिए हजारों लोगों की भीड़ उमड पड़ी थी। पुरानी दिल्ली में हमने कई बार झाकियां देखि थी पर आत्मा को छू देने वाले उस मंज़र के बारे में कभी कल्पना भी नहीं की थी। कृष्ण के प्रेम में नाचते हुए युवक युवतियां, लाल, हरे, पीले, गुलाबी, हर रंग में सराबोर वृन्दावन की गलियां, और बांके बिहारी की एक झलक को बेताब हर में नज़र। यह दृश्य देवताओं को भी मानव रूप लेने को मजबूर कर सकता था।
पर इसी बीच में मैं नहीं जानता था की मथुरा नगरी में आकर मैं उस शक्स से मिलूंगा जिससे मेरे आने वाले जीवन का रुख ही बदल जाएगा।

आगे का अगले अंश में..

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