पियूष अग्रवाल द्वारा रचित जीवन के अनमोल रंग एक प्रयास है जीवन के उन रंगों को उभारने का जिन्हें हम आम तौर पे नज़र अंदाज़ कर देते हैं
Monday, March 01, 2010
फीके पड़ते होली के रंग
सबसे पहले मैं अपने सभी पाठकों को होली की बहुत बहुत शुभकामनाएं देना चाहता हूँ। माफ़ी चाहता हूँ की सेहत ख़राब होने के चलते मैं इस साल होली नहीं मना सका परन्तु दिल में जोश फिर भी हर साल की तरह अपनी पूरी सीमा पे था। होली का त्यौहार ही कुछ ऐसा है की हर इंसान में छुपा हुआ बचपन एक बार फिर से वापस लौटा देता है। याद है दोस्तों वह बचपन के दिन, वह रात भर रंग घोल के रखना, और सुबह होते ही बाल्टी भर के रंग और पानी के गुब्बारे भर लेना। घरवालों के लाख मना करने पर भी मुंडेर पे खड़े होकर रास्ते के आते जाते लोगों और होली की टोलियों को रंग की पिचकारी से सराबोर करना और फिर जब कोई राहगीर नाराज़ हो जाता तोह हाथ जोड़ के कहना "बुरा न मानिये आज तोह होली है"। पर समय के साथ यह होली के रंग भी फीके पड़ते गए, वह रंग वह मस्ती, वह जूनून अब कहीं गायब सा हो गया है। आते जाते राहगीरों की शक्ल पे भी वह चमक ढूँढने से भी दिखाई नहीं पड़ती। उन बच्चों में फिर भी दीवानेपन की एक झलक दिख जाती है कभी कभी. शायद हमारी निरंतर भागती ज़िन्दगी के थपेड़ों ने होली के रंगों का असर भी हल्का कर दिया है।
गलती इसमें किसी व्यक्ति विशेष की नहीं बल्कि पूरे समाज की है। पिछले कई सालों में जहाँ एक तरफ समाज में कई बदलाव आये हैं वहीँ समुदाय का महत्व और भी बढ़ गया है। भारत देश की परंपरा की खासियत ही कुछ ऐसी है - होली, दशेहरा, दिवाली, नव वर्ष, ईद जहाँ हम इन्हें परिवार के साथ मनाते हैं वहीँ यह एक सामुदायिक त्यौहार की तरह भी मनाये जाते हैं। पर देखने में आया है की सामाजिक बदलाव के कारण लोगों का समुदाय पे विश्वास कम हो गया है। हालांकि सामजिक कारणों से सब समुदाय से जुड़े रहना चाहते हैं पर कोई भी बढ़ चढ़ के अपनी ज़िम्मेदारी को पूरा करने को तैयार नहीं। शायद त्योहारों के फीका पड़ने का कारण भी यही है। समुदाय में लोगों के बीच मन मुटाव कोई नयी बात नहीं, पर अब यह दरारें साफ़ दिखने लगी हैं। कुछ साल पहले तक भी परिवारों में, पड़ोसियों में, दोस्तों में झगडे हुआ करते थे पर त्योहारों पर सब लोग हर मन-मुटाव को भुला के त्यौहार की मस्ती में डूब जाते थे और ज़िन्दगी को एक नए नज़रिए से जीने की कोशिश करते थे। होली के रंगों और दिवाली के दीयों का असर ही कुछ ऐसा था की रूठों को मनाना तोह बाएँ हाथ का खेल था। पर अब होली के रंग भी उन दिलों की दूरी को कम कर पाने में असफल मालूम पड़ते हैं।
इसका समस्या का समाधान क्या है? मैं नहीं जानता और शायद कभी जान भी न पाऊँ। हर व्यक्ति और खुद समुदाय को ही आत्म मंथन करके खोजना पड़ेगा इसका समाधान वरना होली के फीके पड़ते यह रंग कुछ ही समय में इतिहास के पन्नों में लुप्त हो जाएंगे।
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6 comments:
चिंतनीय विषय - प्रशंसनीय आलेख - होली की हार्दिक बधाई
बहुत बहुत शुक्रिया राकेश जी..आपको भी होली की बहुत बहुत शुभकामनाएं
होली पर आपकी बेहतर रचना और होली, दोनों को हार्दिक शुभकामनाएं........www.sansadji.com
विचारणीय आलेख..
ये रंग भरा त्यौहार, चलो हम होली खेलें
प्रीत की बहे बयार, चलो हम होली खेलें.
पाले जितने द्वेष, चलो उनको बिसरा दें,
खुशी की हो बौछार,चलो हम होली खेलें.
आप एवं आपके परिवार को होली मुबारक.
-समीर लाल ’समीर’
holi hamare andar chhipe rangile vyaktitva ko prakat karne ki puratan parampara hai.naye varsh ki rangili shuruat,phagunahat,vasant,jogira sarraarra butnow holi means sharab aur meat,vulgur gande gane ...ye hamare samaj ke vikrit hone kai nishani hai
main aapki baat se ekdum sehmat hoon par sawaal yeh hai ki badlaav ko laane ke liye hum sabko prayaas karna padega.
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