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Wednesday, March 03, 2010

मेरा त्यागपत्र कबूल करें - १४११

श्रीमान प्रधान मंत्री जी और मेरे प्यारे दोस्तों,

जानता हूँ की आज़ाद भारत में सांस लेते ६३ साल बीत चुके हैं और यह मेरा पहला ख़त है, पर बीते कुछ वर्षों में कुछ ऐसी घटनाएँ घटी की मुझे यह पत्र लिखना पड़ रहा है

मुझे आज भी याद है वह दिन जब गणतंत्र भारत के नागरिकों ने मेरा राज्याभिषेक किया था वह दिन मेरे जीवन का शायद सबसे खूबसूरत दिन था सारा जंगल दुल्हन की तरह सजा हुआ था वह सजे हुए हाथियों की सवारी, शाही पोषक में नृत्य करती मोरनियाँ, विशाल आसमान में लड़ाकू चील और बाज़ का और ज़मीं पे तेंदुओं और सियारों की सलामी देती चतुरंगिनी सेना और चारों तरफ से हिमालय का सीना भेदती अनगिनत घोड़ों, सियारों, हिरणों, भालूँ एवं तमाम जंगल के जानवरों की एक स्वर में निकलती वह "शेरखान शेरखान" की गूँज इन्द्र का सिंघासन हिलाने के लिए काफी थी किसी भी राजा के लिए कभी भूलने वाले गौरवशाली पल थे वह इस अवसर पे सरिस्का, बांधवगढ़, रंथाम्बोर और सतपुड़ा सहित सारे देश से मेरे परिवार और मित्र वहां मौजूद थे।


जहाँ एक तरफ देश की आजादी का जोश और ख़ुशी हर जानवर की आँखों में साफ़ झलक रही थी वहीँ अपने महाराज के प्रति उनका अटूट लगाव और सम्मान शायद एक पल के लिए महान सम्राट अशोक को भी हैरत में डाल देता

बीते दशकों में इस देश ने कई पड़ाव तय किये हैं, पड़ोसियों से अपने अस्तित्व को बचाने के लिए कई जंग भी लड़ी, चन्द धार्मिक कट्टरपंथी और सियासतदानों की लगायी आग में बरसों के प्यार को अंगार होते भी देखा, हमारे पडोसी मुल्क के साथ की हमारी नफ़रत में जाने कितनी मासूम जिंदगियां झुलस के रह गयी और हम कुछ कर पाए इसी बात पे इकबाल की वह पंक्तियाँ याद आती हैं की " कुछ बात है की हस्ती मिटती नहीं हमारी, सदियों रहा है दुश्मन दौर--जहाँ हमारा"

भारत देश की जितनी फिर्क आप देशवासीयों को है शायद उतनी ही हम जंगल के जानवरों को भी है मुझे याद है १९७२ के भारत-पाक युद्ध में शहीद हुए हर जवान के बहादुरी के किस्से मुझे वहां से आये परिंदे सुनाया करते थे जिसे सुनकर मुझे जैसे कठोर का मन भी भावुक हो जाता पर इस बात पे सीना गर्व से चोडा हो जाता की भारत की माताओं ने बेटे नहीं बल्कि बब्बर शेरों को जन्म दिया है

हम सबने यहाँ जंगल में भारत देश और यहाँ के देशवासीयों की हर छोटी बड़ी उपलब्धि पे दिल खोल जश्न भी मनाया दिवाली, ईद, ओणम, क्रिसमस, हर त्यौहार पे जंगल को दुल्हन की तरह सजाया

सबकुछ अच्छा चल रहा था, बिलकुल एक सुखी परिवार की तरह पर शायद तभी कुछ शैतानों की नज़र हमारे सुखी परिवार को लग गयी यह जंगल अब वैसा नहीं रहा जैसा कुछ दशक पहले था बरसों से चल रही गोलियों की आवाज़ से हिमालय भी कुछ सहमा हुआ सा है जंगल की नदियों के पानी में लाल रंग के धब्बे अक्सर दिखाई पड़ जाते हैं इसी बीच जाने कितने ही मेरे साथी मित्र मुझसे अलग हो गए और फिर कभी नहीं दिखे मैं और मेरा परिवार उन्हें आज तक वीरान होते इन जंगलों में ढूँढ रहे हैं

आखिर क्यूँ हो रहा है यह सब? क्यूँ?
बढती हुई आबादी की ज़रूरतों को पूरा करने के लिए जंगल बहुत तेज़ी से काटे गए कटते जंगलों में रहने वाले पशुओं को अपने खाने की खोज में जंगल से सटे इंसानी आबादी वाले कस्बों और गाँव में जाना पड़ता जिसकी वजह से वहां के गाँव वालों के साथ उनकी कई बार मुठभेड़ भी हुई सुमात्रा के जंगलों में भी कुछ ऐसा ही हुआ जिसकी वजह से आज यह स्तिथि है की मेरे जैसे कई दुर्लभ जानवर लुप्त होने को है सुंदरबन के जंगलों को सँभालने वाले रक्षक ही वहां के वनों और जीव जंतुओं के भक्षक बन गए देखते ही देखते हमारे घर (जंगल) पर्यटक स्थल बन गए और सरकारी तंत्र ने हमारे परिवार को एक दुर्लब प्रजाति का तमगा थमा दिया

सुना है की इस वर्ष के कॉम्मन वेल्थ खेलों का मेस्कोट भी मुझे ही चुना गया है क्या भारत में दुर्लभ प्रजातियों के लिए भी कोई नया आरक्षण निकाला है सरकार ने? अगर ऐसा है तो मैं अपने मित्र हिमालयन भेडिये का नाम प्रस्तावित करना चाहूँगा क्यूंकि उसका परिवार तोह समाप्ति पे पहुँच ही चुका है आखिर इस देश का इससे अच्छा उपहार और क्या हो सकता है एक लुप्त होते परिवार के लिए

वैसे कहने को बहुत कुछ है पर लगता है मेरे पास समय कम ही बचा है, नदी पे पानी पीने आया था तभी से पाँव में दर्द हो रहा है, शायद किसी की गोली लगी है शिकारी आता ही होगा मुझे लेने, पर विदा लेने से पहले मैं इस विशाल और महान लोकतंत्र देश के राष्ट्रीय पशु के उत्तरदायित्व से मुक्त होना चाहता हूँ वैसे भी मेरी प्रजाति के दिन अब गिने चुने ही हैं और राष्ट्रीय पशु के दायित्व का भार मैं या मेरे परिवार में और कोई भी नहीं उठा पाएगा

मेरी मानिए तो राष्ट्रीय पशु का ख़िताब ही ख़त्म कर दीजिये शायद एक और प्रजाति ख़त्म होने से बच जाये। वैसे
यह "राष्ट्रीय" शब्द जुड़ना काफी खतरनाक है, राष्ट्रीय खेल की हालत तो आप देख ही रहे हैं। यहाँ राष्ट्र से जुडी किसी भी चीज़ से किसी को भी कोई लगाव नहीं। एक आम आदमी की ज़िन्दगी में क्या फर्क पड़ता है, उसके पास सोचने के लिए वैसे भी कम समस्या नहीं है जो वह राष्ट्रीय पशु के बारे में भी सोचे।

तो इन हालत में
कृपा करके मेरा त्यागपत्र कबूल करें और मुझे मेरे कार्य भार से मुक्ति दें बांधवगढ़ के जंगलों से अपने अंतिम कदमों की निशानी पत्र के साथ ही भेज रहा हूँ

आपका राष्ट्रीय पशु
शेरखान


2 comments:

Amit Tyagi said...

Mast Likha hai !!
PM Saheb apni ganji khpodi khuja rahen hain :P

Piyush Aggarwal said...

shukriya sir...vaise apne PM saheb ki khopdi mein toh kaafi hariyali hai :)