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Tuesday, August 25, 2009

चाचा छक्कन की दिलचस्प दास्ताँ - भाग ३


(वर्त्तमान , चाचा का घर , चाचा हुक्का गुड गुड करते हुए )

कोई है? अनुराग? अरे शीतल? शन्नो? पता नहीं पौ फट ते ( सुबह सुबह ) ही सब कहाँ गायब हो गए? यह कमबख्त कुमारी बहिन भी बाज़ार गई हुई है। बोला था की नौकर को मेरे पास छोड़ जाओ पर बड़ी माँ के जाने के बाद यहाँ मेरी कौन सुनता है। बूढा जो हो गया हूँ, वैसे भी अब न राज रहा न वोह शान-ओ-शौकत , पर चांदनी चौक में आज भी हमारा वोही रुतबा है जो राय साहब दिन दयाल के ज़माने में था। अब यह आजकल के नौजवान क्या समझेंगे शाही बातों को? इनको तोह वोह क्या कहते हैं सनेमा में जाने से ही फुर्सत नहीं मिलती। हम ठहरे पुराने शाही ख़यालात के लोग। अब हमारे साथ समय बिताने के लिए भी इनके पास समय नहीं। अभी जो हमारे पिताजी यहाँ होते तोह एक एक की टंगे तुड़वा देते।

खैर जो भी कहो घर में सब मुझे बड़ा प्यार करतें हैं, जानता हूँ की मेरे कड़क रवय्ये के कारण कई बार घर में मन मुटाव पैदा हो गया था पर मैंने कभी भी अपनी बात को मनवाने के लिए ज़ोर ज़बरदस्ती नहीं की। हाँ मलाल बस एक बात का है की कुमारी बहिन के साथ जो कुछ हुआ उसका जिम्मेदार मैं ही हूँ। काश उस वक्त माँ को उनके पैरों में पड़ के चुप करा दिया होता जब उन्होंने वसुंधरा के होने पर कुमारी बहिन को घर से निकालने के लिए खुदकुशी करने की धमकी दे डाली थी। लो कुमारी बहिन भी बाज़ार से वापस आ गई, ज़रूर खाने को कुछ लायी होगी।

कुमारी बहिन: आपको कितनी बार मना किया है की इतना हुक्का मत पिया करो पर तुमने कभी मेरी सुनी हो तोह कहने का फायदा भी है। इस घर में रहते मुझे ३५ साल हो गए हैं, पर मेरी हालत इस घर में किसी पुराने शाही सोफे से जादा नहीं है। शाही इसलिए क्यूंकि कहने को अब भी पुरानी दिल्ली के सबसे मशहूर परिवार की बड़ी बहु हूँ पर अब इस दकियानूसी शान को और खेंच पाना मेरे बस की बात नहीं।

चाचा: उफ़ हो , तुम तोह जब देखो तीसरे विश्व युद्घ के लिए तैयार खड़ी रहती हो, कभी दो शब्द मीठे बोल लोगी तोह तुम्हारा क्या चला जाएगा।

कुमारी बहिन: डाक्टर साहेब ने तुम्हे मीठा देने को सख्त मन किया है, और तोह और तुम्हारी प्यारी शन्नो ने तोह तुम्हे इस ज़िन्दगी में मीठा न दिखाने की कसम खा रक्खी है।

चाचा: तुम सबने तोह मुझे जीते जी मारने की मानो ठान रक्खी है। कामिनी शादी होकर क्या गई मेरा तोह सुख चैन ही चला गया।


कुमारी बहिन : हाँ हाँ जानती हूँ, तुमने तोह साड़ी दुनिया को ही अपना दुश्मन मान रखा है, कभी कभी उस दिन को कोसती हूँ जब तुमसे पहली बार मिली थी। काश उस दिन मेरे बाबा मुझे बरसाने से मथुरा न लाये होते।



(होली का दिन) मथुरा में लठ मार होली कई सौ साल से मनाई जा रही है, मैं और मेरी सहेलियां उस दिन उसी के लिए मथुरा जा रही थी। हम सबका एक ही लक्ष्य था , कान्हा के दल की जम के पिटाई, माँ बताती थी की कैसे इसी दिन अपने कृष्ण मतलब बाबा से मुलाकात हुई। वैसे राधा कृष्ण की इस मनमोहक नगरी में न जाने कितनी अनगिनत प्रेम कहानियाँ लिखी गई हैं। अपने जीवन में मैंने ख़ुद अनेक यात्रियों को वृन्दावन मथुरा बरसाने के प्रेम में डूब कर ख़ुद को भुलाते और नटखट नन्दलाल के प्रेम में बावरे होकर गली गली भटकते देखा है। उसका माखन चोर का मोह ही कुछ ऐसा है की आप अपने आप और अपनी ज़िन्दगी को भुला उसी के प्रेम में डूब जाना पसंद करते हैं। उसके बाद ब्रह्माण्ड का राज भी आपको फीका मालूम पड़ता है। उस परम आनंद का अनुभव बहुत ही किस्मत वालों को मिलता है। इसीलिए प्रेम के भूके यात्री जो मथुरा वृन्दावन आते हैं, वे राधा रानी के दर्शन को बरसाने अवश्य ही जाते हैं । हमारे गाँव में यह हमेशा से कहा गया की कृष्ण को पाने का रास्ता राधा रानी के गाँव से होकर ही जाता है।


हर साल की तरह मैं और मेरी सहेलियां ग्वाल बालन के साथ होली खेलने को मथुरा के लिए रवाना हो गई। मार्ग में लोगों का उत्साह पिछले कई सालों से जादा ही था । हम सब सहेलियों ने इस बार अपने अपने लठ को खूब तेल पिला के रखा था और सब ग्वाल बालन को खूब पिटाई करने के मन से ही घर से निकली थी। वैसे तोह लठ मार होली दुनिया भर में मशहूर है पर इसके पीछे छिपा एक अनोखा प्यार बहुत ही कम लोग समझ पाते हैं।


लो रंग में हुर्दंग मचाते ग्वालों की पहली टोली दिखाई दी। जुबान पे सिर्फ़ उसी नन्दलाल का नाम, न जाने कैसा जादू कर दिया है की लठ की मार के बाद भी चेहरे पे कोई शिकन नहीं बल्कि प्रेम रंग में डूबे दीवाने की तरह फ़िर लठ के नीचे आने की ललक दिखाई पड़ती है। भगवान ही बचाए इन दीवानों से अब तोह। बरसाने की सभी टोलियाँ वृन्दावन - मथुरा पहुँच चुकी थी और कुछ ही देर में प्रेम और रंग का ऐसा अनोखा एवं मनोहर संगम होने वाला था जिस दृश्य की सिर्फ़ कल्पना ही की जा सकती है। हमारे वहां पहुँचते ही कुछ ही देर में सारे आकाश में से रंगों की एक आंधी चल पड़ी और शरीर की हर थकन को कुछ ही पलों में उड़ा के ले गई।


रंगों में नहाती वृन्दावन की गलियों से गुज़रते हुए हम वहां पहुँच गए जहाँ लठ मार होली खेली जा रही थी। ग्वाल बालन के दल कमर कस के खड़े थे और जैसे ही उन्होंने हमें छेड़ना शुरू किया सभी ने अपने लठ को निकला और पिटाई शुरू कर दी। अपने को बचाते ग्वाल बालन ने ब्रज गीत के ज़रिये हमें छेड़ना बंद नहीं किया। उनकी देखा देखि हमने भी गीत गाने शुरू कर दिए।


अरी भागो री भागो री गोरी भागो, रंग लायो नन्द को लाल।
बाके कमर में बंसी लटक रही और मोर मुकुटिया चमक रही
संग लायो ढेर गुलाल, अरी भागो री भागो री गोरी भागो,रंग लायो नन्द को लाल।


चारों तरफ़ से रंग ही रंग बरस रहा था, ब्रज के ग्वाल बालन के गीतों की गूँज आज इन्द्र के सिंघासन को हिलाने के लिए काफ़ी थी। ऐसे में दिल को काबू कर पाना किसी भी इंसान के लिए कठिन है।

हाथों में लठ लिए मैं भी इस रंगों की बारिश का आनंद लेने को कूद पड़ी। लठ बरसाती , गीत गाती , प्रेम और खुशी के अश्रु गिराती, ख़ुद को भूलती, नन्द के लाल से एक पल शर्माती, रूठ जाती और फ़िर उसे प्रेम पूर्वक मनाती। एक पल को ऐसा लगा की काश इसी रूठने और मनाने में जीवन बीत जाए। कुछ देर के बाद वोह रंग का तूफ़ान तो ठहर गया पर मेरे दिल में एक और तूफ़ान खड़ा कर गया - इस बार शायद वोह तूफ़ान मेरे भीतर ही आया था।


उसने एक पल को देखा और मेरी साँस रुक गई। उसके शीतल स्पर्श को जीवन भर नहीं भुला सकी। ऐ सखी कौन है वोह ? कहाँ चल दिया, पल भर में, मेरी धडकनों , मेरे सपनों को अपने पीछे लिए। मैं बावरी होकर उसके पीछे भागी जा रही थी, न परिवार, न समाज और ख़ुद को भी भुलाये बस सिर्फ़ एक ही इच्छा दिल में लिए , रुक जाओ सिर्फ़ एक पल के लिए ही सही, रुक जाओ। उसको रंग के गुब्बारे के बीच गायब होता देख मैं चिल्ला उठी यह सोचकर की शायद अब फ़िर कभी न देख पाऊँ उसे इस जीवन में। टूटती साँसों ने एक आखिरी पुकार लगायी - रुको रुको रुको

और फ़िर


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2 comments:

वाणी गीत said...

रोचक शब्दावली में ब्रज की सैर का वर्णन ...और फिर क्या हुआ ...उत्सुकता बढ़ गयी है.

Piyush Aggarwal said...

वाणी - उम्मीद है आपने चाचा छक्कन के पहले दो भाग भी पढ़े होंगे